"पांच साल..केजरीवाल" के नारे के बीच बीजेपी की अपनी आशाएं-आकांक्षाएँ दम तोड़ती दिख रहीं है । चुनाव की गर्मा-गर्म बहसों में हम सतही आरोप-प्रत्यारोप सुन रहे है और उनके जबाब भी उतने ही हमलावर तरीके से दिए जा रहे है । विभिन्न सर्वे बता रहे है कि राजधानी की राजनीति में बीजेपी के अच्छे दिन अभी नही आये है । जानकारों का कहना है कि इसके लिए बहुत हद तक कुछ दिन पहले लिया गया बीजेपी का वो फैसला भी जिम्मेदार है जिसमें किरण बेदी को बीजेपी में शामिल करने से लेकर, उन्हें राजधानी के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना, दिल्ली के बड़े नेताओं की नाराजगी तक शामिल है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्यूँ कि बीजेपी की रणनीति के हिसाब से जो चमत्कार किरण बेदी को करना था वो नहीं कर पाईं । लेकिन देश और दिल्ली की राजनीती को गौर से देखा जाये तो ये विश्लेषण भी सतही मालूम होता है।
दिल्ली में जो दो पार्टियां असली लड़ाई में उनमें से एक पार्टी देश की सत्ता को अपने दम पर सम्हाले हुए है जो कि पिछले दो दशकों की राजनीति में देखने को नही मिलता। वहीं दुसरी पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उपज है जो पांच साल के लिए सत्ता की मांग कर रही है; हालांकि यह बात अलग है कि इस नई-नवेली पार्टी को राजनीति में आये अभी पांच साल नही हुए है। फिर ऐसी क्या वजह है की भारी बहुमत से लोकसभा और देश के विभिन्न हिस्सों के विधान सभा चुनाव में इतिहास बनाने वाली बीजेपी, राजधानी में पिछला प्रदशन को दौहराने में भी कमजोर साबित हो रही है। बीजेपी के अंदर लोकसभा चुनाव के बाद से दिल्ली चुनाव को लेकर जो असमंजस थी वो सभी ने देखी है। मोदी रथ पर सवार बीजेपी कई राज्यों में जीत के झंडे गाड़ रही थी और उसी समय किसी आशंका के चलते दिल्ली चुनाव से किनारा करती हुई नजर आ रही थी। या तो बीजेपी को ये अतिविश्वाश था कि दिल्ली चुनाव को वो कभी भी करवा कर जीत सकते है या ये डर कि लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद आम आदमी पार्टी से जमीनी लड़ाई कहीं मोदी लहर की धार को कमज़ोर न करदे । अगर बीजेपी को डर था तो ये डर आज सही मालूम होता दिख रहा है! और इसके लिए बीजेपी के रणनीतिकार बधाई के पात्र भी है। लेकिन इससे एक और बात सामने आती है वो ये क़ि क्या बीजेपी ने दिल्ली चुनाव को मोदी लहर की खातिर या अन्य राज्यों में जीत सुनिश्चित के लिए दांव पर लगाया था ? अगर हाँ तो ये हार का सौदा भी ज्यादा नुकसान देह नहीं है । लेकिर अगर बीजेपी सचमुच दिल्ली चुनाव के लिए गंभीर थी, और अगर बीजेपी हारती है, जिसकी ओर कई सर्वे इशारा कर रहे है, तो ये बीजेपी की सबसे अच्छे समय में सबसे बुरी हार होगी !
दिल्ली में जो दो पार्टियां असली लड़ाई में उनमें से एक पार्टी देश की सत्ता को अपने दम पर सम्हाले हुए है जो कि पिछले दो दशकों की राजनीति में देखने को नही मिलता। वहीं दुसरी पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उपज है जो पांच साल के लिए सत्ता की मांग कर रही है; हालांकि यह बात अलग है कि इस नई-नवेली पार्टी को राजनीति में आये अभी पांच साल नही हुए है। फिर ऐसी क्या वजह है की भारी बहुमत से लोकसभा और देश के विभिन्न हिस्सों के विधान सभा चुनाव में इतिहास बनाने वाली बीजेपी, राजधानी में पिछला प्रदशन को दौहराने में भी कमजोर साबित हो रही है। बीजेपी के अंदर लोकसभा चुनाव के बाद से दिल्ली चुनाव को लेकर जो असमंजस थी वो सभी ने देखी है। मोदी रथ पर सवार बीजेपी कई राज्यों में जीत के झंडे गाड़ रही थी और उसी समय किसी आशंका के चलते दिल्ली चुनाव से किनारा करती हुई नजर आ रही थी। या तो बीजेपी को ये अतिविश्वाश था कि दिल्ली चुनाव को वो कभी भी करवा कर जीत सकते है या ये डर कि लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद आम आदमी पार्टी से जमीनी लड़ाई कहीं मोदी लहर की धार को कमज़ोर न करदे । अगर बीजेपी को डर था तो ये डर आज सही मालूम होता दिख रहा है! और इसके लिए बीजेपी के रणनीतिकार बधाई के पात्र भी है। लेकिन इससे एक और बात सामने आती है वो ये क़ि क्या बीजेपी ने दिल्ली चुनाव को मोदी लहर की खातिर या अन्य राज्यों में जीत सुनिश्चित के लिए दांव पर लगाया था ? अगर हाँ तो ये हार का सौदा भी ज्यादा नुकसान देह नहीं है । लेकिर अगर बीजेपी सचमुच दिल्ली चुनाव के लिए गंभीर थी, और अगर बीजेपी हारती है, जिसकी ओर कई सर्वे इशारा कर रहे है, तो ये बीजेपी की सबसे अच्छे समय में सबसे बुरी हार होगी !
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